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भोपाल में एक गैर-सरकारी संगठन ‘अरुषि’ चलाने वाले अनिल मुद्गल ने जब मुझे पहली बार पश्चिम-मध्य रेलवे का आरक्षण फॉर्म दिखाया, तो उसमें कुछ विशेष न ढूंढ़ पाने के कारण मैं थोड़ा भ्रमित था। वास्तव में इस फॉर्म पर एक तरफ हिंदी और अंग्रेजी में दिशा-निर्देश दिए हुए थे, जबकि दूसरी तरफ ब्रेल लिपि में कुछ लिखा हुआ था। मैं अचंभित था, अत: अनिल ने पूरी बात विस्तार से बताई।
उन्होंने मुझसे एक प्रश्न पूछा, ‘ऐसा कितनी बार होता है कि आप अपनी दुआ-सलाम का जवाब न देने वाले के बारे में गलत राय बनाते हैं?’ इस पर मैंने कहा, ‘यदि मैं उस शख्स को जानता हूं तो उसे भूल-चूक ही मानूंगा। मैं समझूंगा कि वह हाल-फिलहाल किसी बात में उलझा होगा, इसलिए मेरी दुआ-सलाम का जवाब नहीं दे पाया।’
इस पर अनिल ने कहा, ‘बिल्कुल सही बात है। आप उस शख्स को अच्छी तरह जानते हैं, इसीलिए कोई त्वरित राय नहीं बनाते। अन्यथा अधिकांश मामलों में हम राय निर्धारण के मामले में हठीले रवैया का ही परिचय देते हैं। कारण, अक्सर हम किसी शख्स को अच्छे से नहीं जानते हैं। अत: उसकी भावनाओं को समझ नहीं पाते और उसे सराह नहीं पाते।’
फिर अनिल ने तार्किक ढंग से इस बात को आरक्षण फॉर्म के पिछले हिस्से में ब्रेल लिपि में छपे दिशा-निर्देशों से जोड़ा। यह सफल प्रयास अरुषि की ही देन है। उनके मुताबिक किसी खास स्थिति को समझने और उसे सराहने के लिए उसके बारे में जागरूकता फैलना ही एकमात्र रास्ता है। इसीलिए उन्होंने नेत्रहीनों के प्रति लोगों को जागरूक बनाने के लिए रेलवे को माध्यम बनाने की सोची।
इससे पहले पश्चिम-मध्य रेलवे के आरक्षण फॉर्म एक-एक तरफ हिंदी और अंग्रेजी में छपे होते थे। यह देख अरुषि के लोगों ने रेलवे प्रशासन से इस फॉर्म की सार्थकता पर सवाल उठाया। उनका तर्क था कि फॉर्म के एक ही तरफ दोनों भाषाओं में दिशा-निर्देश छपे होने से खर्च बचेगा। उनका यह तर्क जब रेलवे प्रशासन के गले उतरने लगा तो अरुषि ने फॉर्म के पिछली तरफ ब्रेल लिपि में दिशा-निर्देश छापने का सुझाव रखा। इस बारे में उनका तर्क साधारण था।
आरक्षण के लिए लाइन लगाए लोग, भले ही कम संख्या में सही, अगर उस फॉर्म के पिछली तरफ उभरे अक्षरों को देखते हैं तो उन्हें पता चल जाएगा कि किस तरह नेत्रहीन सामान्य से काम के लिए भी जद्दोजहद से गुजरते हैं। इस तरह उन्हें समझ आएगा कि उनके साथ किस तरह का व्यवहार करना चाहिए।
इसके अलावा अधिकांश यात्रियों की प्रवृत्ति दो आरक्षण फॉर्म लेने की होती है। एक तो वह भरकर काउंटर पर ही जमा कर देते हैं, जबकि दूसरा घर ले आते हैं। अगर उनमें से कुछ ने बाद में ब्रेल लिपि को पढ़ा और अन्य दूसरे लोगों को बताया तो हमारा उद्देश्य फिर भी पूरा हो जाएगा।
भले ही यह एक छोटी शुरुआत हो, लेकिन इसका मकसद बहुत बड़ा है। यहां बात सिर्फ नेत्रहीनों की नहीं है, बल्कि इसका आशय सभी को यथोचित सम्मान और प्रेम देने की है। दुनिया भर में कटु शब्द या द्वेष का भाव सामने वाले को न जानने या उसे जानने के प्रयास न करने के कारण ही उपजता है। इस लिहाज से सभ्य और असभ्य के बीच की जो बारीक रेखा है उसका निर्धारण परस्पर समझ की कला पर निर्भर है।
यकीन मानिए फंडा यह है कि इस दिशा में थोड़ा सा प्रयास भी इस दुनिया को रहने लायक एक बेहतर स्थान बनाने में महती भूमिका निभा सकता है।
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