Caste interest overlaps ideologies and doctrines!
विचारधारा और सिद्धान्त जाति हित में बदल जाते हैं !
- सम्पादक, हस्तक्षेप
फेसबुक संवाद
Anand wrote: “aarti Punia जी क्या आप यह बताने का कष्ट करेंगे कि वे कौन से प्रखर मार्क्सवादी हैं जो बिना जनता के भी क्रांति करने में सक्षम ? मैं चंडीगढ़ संगोष्ठी में मौजूद था। वहां तो किसी वक्ता ने ऐसी कोई बात नहीं की। उल्टे, अपने तमाम मतभेदों के बावजूद सभी वक्ता इस बात पर तो सहमत थे कि मेहनतकश दलित आबादी के बिना भारत में क्रांति सम्भव नहीं। शायद आपने कोई अफ़वाह सुन ली है। इतने गम्भीर मसले पर अफवाहों पर ध्यान मत दीजिये। मैं संगोष्ठी के मुख्य पेपर का लिंक भेज रहा हूं, उसके पढि़ये और फिर बेशक आलोचना रखिये। यह तो आप भी मानेंगे कि अफवाहों पर ध्यान देने से न तो क्रांति का भला होगा और न ही दलितों का। http://arvindtrust.org/wp-content/uploads/2013/03/Jaati-Prashn-aur-uska-Samaadhaan-Ek-Marxvadi-Dristikon.pdf”
आनंदजी, आपकी दलील वाजिब है।पर जो रपटें आयीं और जिस आक्रामक अंदाज में अभिनव जी ने मुक्त बाजार के लिए अंबेडकर के आर्थिक चिंतन को आधार बताया, उन्हें पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का समर्थक घोषित किया, फिर यह घोषित कर दी दलित मुक्ति के लिए अंबेडकर की कोई परियोजना नहीं है। उससे संगोष्ठी में शामिल हर किसी को लग सकता है कि बहुसंख्यक जनता को हाशिये पर रखकर जाति वमर्श के बहाने अंबेडकर को खारिज किया जा रहा है। बेहतर हो कि अभिनव जी के अलावा आप सभी जो बहस छिड़ चुकी है, उसमें शामिल होकर संवाद को रचनात्मक आयाम दें , जिससे प्रतिरोध और आत्मरक्षा के लिए निनानब्वे फीसद जनता का एका हो सकें।
आपने यह लिंक भेजा, इसके लिए आभारी हूं। भ्रामक रपटों से पहले, आक्रामक बयानबाजी से पहले आप लोगों ने विमर्श के बिंदुो का खुलासा किया होता और वहां प्रस्तुत आलेख पेश किये होते तो यह कटुता न होती। बहरहाल मैं निजी तौर पर बहस को ठीक मानता हूं। सिद्धांतों और अवधारणाओं पर बहस संभव है पर रणनीति के खुलासे में संयम बरता जाना चाहिए। राष्ट्रव्यापी मुक्तिकामी जनांदोलन के समान लक्ष्यं के लिए विमर्श जरुरी है। “हस्तक्षेप” की वजह से सबसे अच्छी बात है कि हमें भी इस बहस में शिरकत करने का मौका मिला है। अभिनव जी के सिद्धांतों और विश्लेषण का हमने खंडन नहीं किया है, बल्कि ाप जो कह रहे हैं, वही हम कहने की कोशिश कर रहे हैं। जो हम कह नहीं पा रहे हैं। उसे समझ लेने की जरुरत है।उसका खुलासा उचित नहीं है। दूसरी ओर, जिस विमर्श को आपने शुरु किया, वह सामान्य पाठक वर्ग तक पहुंचने लगा है। अंबेडकर को लोग भूल गये हैं और सत्ता की भागेदारी और आरक्षण तक सीमित होगये अंबेडकर। बहुजनों की आर्थिक संपन्नता और जाति उन्मूलन के मुद्दे गौण हो गये हैं। व्यक्तिगत कुत्सा अभियान में बहस तब्दील न हो और सामूहिक विमर्श व संवाद की हालत बने तो इस संवाद के रचनात्मक निष्कर्ष निकल सकते हैं।
पलाश विश्वास
पुनश्चः इस आधार आलेख को सार्वजनिक किया जाये तो संवाद की नय़ी दिशा खुल सकती है।यह हम तो पढ़ सकते हैं , पर यूनीकोड में न होने की वजह से शेयर नहीं कर पा रहे हैं।
पलाश
अगर यथार्थ को सही परिप्रेक्ष्य में सम्बोधित करना चाहेंगे तो वैज्ञानिक विश्लेषण और तर्कों के अलावा यह भी देखेंगे कि विचारधारा और सिद्धान्त जाति हित में कैसे बदल जाते हैं !
हम आभारी हैं कि अभिनव जी ने यह माना कि बहस अंबेडकर और मार्क्स के बीच नहीं है। उनके अनुयायियों के बीच है। अपने ताजा आलेख में उन्होंने यह भी कहा कि सवाल अम्बेडकर को खारिज करने या अपना लेने का नहीं है, बल्कि यह तय करने का है कि अम्बेडकर में क्या अपनायें और क्या ख़ारिज करें। इन बिन्दुओं पर असहमति का प्रश्न नहीं उठता। अभिनव जी पूरा आलेख हम अवश्य ही पढ़ना चाहेंगे। उनके ताजा आलेख से जाहिर है उनका आशय अंबेडकर को खारिज करके जड़ विचारधारा का अवलम्बन करना कतई नहीं है। हम चंडीगढ़ संगोष्ठी में नहीं थे। लेकिन उसकी जो रपटें आयीं, उनमें अभिनव जी का यह लोकतान्त्रिक व वैज्ञानिक अवस्थान स्पष्ट नहीं हुआ। बल्कि ऐसा लगा कि अंबेडकर को खारिज करना ही एकमात्र मकसद है।
अब दूसरी बात यह कि मैं न तो अभिनव कुमार का विरोध कर रहा हूँ और न आनंद जी का पक्ष ले रहा हूँ। वीडियो में जो बातें कहीं गयी हैं, उन्हीं के आधार पर आनंद जी का मूल्याँकन भी नहीं करता हूँ। बोलते हुये हम लोग अक्सर अंतरविरोधी बात कह जाते हैं। आनंद जी को अपना अवस्थान स्पष्ट करने का उतना ही हक है जितना कि अभिनव जी को। लेकिन अब जो मुद्दे उभरकर आये हैं, उससे इस बहस को एक रचनात्मक दिशा मिलने की उम्मीद है। “हस्तक्षेप” और सोशल मीडिया के दूसरे साथियों को हमें यहाँ तक पहुँचाने के लिये बधाई। हम अभिनव जी को निजी तौर पर अवश्य नहीं जानते पर मजदूर बिगुल की भूमिका हम जानते हैं। हम सभी में अंतरविरोध होंगे। हम और लोकतान्त्रिक ढंग से बहस जारी रख सकते हैं, और जैसा कि अभिनव जी अब कह रहे हैं कि किसी विचारधारा से कितना लिया जाये और कितना नहीं, आन्दोलन की दिशा और विचारधारा क्या होनी चाहिये, इस पर विचार चलना चाहिये। जाति विमर्श पर अंबेडकर की आलोचना के सिवाय बाकी विमर्श से हम अभी अनजान हैं। हम वह अवश्य जानना चाहेंगे।
बहस व्यक्ति केन्द्रित न होकर मुद्दों पर केन्द्रित हो तो भटकने की गुंजाइश कम है, और मेरे ख्याल से यह वैज्ञानिक पद्धति है। लेकिन अब तक बहस के द्विपक्षीय तेवर से हमें आपत्ति रही है। जाति विमर्श कोई सरल संकट नहीं है। यह वह जटिल समस्या है कि भारत में जनान्दोलन की दिशा ही तय नहीं हो पा रही है। जाति हित विचारधारा पर हावी है । विचारधारा पर जाति वर्चस्व हावी है। अभिनव जी अगर यथार्थ को सही परिप्रेक्ष्य में सम्बोधित करना चाहेंगे तो वैज्ञानिक विश्लेषण और तर्कों के अलावा यह भी देखेंगे कि विचारधारा और सिद्धान्त जाति हित में कैसे बदल जाते हैं। नस्ली भेदभाव विचारधाराओं और सिद्धान्तों पर आधिपात्य स्थापित कर लेता है। हम यह विनम्र निवेदन कर रहे थे कि अंबेडकर के लिखे पर चाहे जो जिसका असर रहा हो, उनके योगदान और भूमिका की समग्रता में ही उनका मूल्याँकन होना चाहिये।
दूसरी बात यह कि अभिनव जी बार-बार इस पर जोर दे रहे हैं कि संविधान में जनविरोधी विशेष सैन्य बल अधिकार जैसे कानून हटाने के लिये अंबेडकर कुछ नहीं कर पाये। अंबेडकर तो स्वतन्त्र भारत में चुनाव तक जीत नहीं पाये। जाति वर्चस्व के मकसद से उन्हें किनारे कर दिया गया और रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी, जिसकी आज तक जाँच नहीं हुयी। अंबेडकर सिर्फ मसविदा समिति के अध्यक्ष थे, जो रणनीतिक कारण से सत्ता वर्ग ने उन्हें बनाया। इस संविधान के बारे में उन्होंने क्या कहा है, इसका उद्धरण अभिनव जी ने सही सन्दर्भ मे पेश किया है। हम संविधान की खामियों के बारे में उनके विचारों से सहमत हैं। पर इस संक्रमणकाल में संविधान में जो सकारात्मक चीजे हैं, उसे पीड़ित जनता के पक्ष में मजबूती से कहना जरूरी है। इरोम शर्मिला एक लोकतान्त्रिक लड़ाई लड़ रही हैं। बारह साल से आफसा हटाने के लिये वे आमरण अनशन पर हैं। बाकी देश में इसका कोई असर नहीं है। समूचा हिमालयी क्षेत्र कश्मीर से लेकर मणिपुर नगालैंड तक, मध्य भारत और दक्षिण भारत बाकी देश से विच्छिन्न है। यह जाति के अलावा नस्ली भेदभाव का मामला है। अभी लियाकत का मामला ही लीजिये, राष्ट्र के आतंकविरोधी अमेरिकी युद्ध में कॉरपोरेट मीडिया के सहयोग से जो परिस्थिति बनी है, उसके तहत देश के सारे अल्पसंख्यकों के लिये मुक्तिकामी संघर्ष का कोई मतलब नहीं है। वे तो बस अपना लोकतान्त्रिक व धर्मनिरपेक्ष अधिकार मिल जायें, तो उत्पीड़न से बच सकते हैं। कश्मीर, मणिपुर, असम, गुजरात और पूरे मध्य भारत के संदर्भ में यह सबसे बड़ा सच है। इस सच को माने बगैर हवा में क्रान्ति करने से पीड़ितों और वंचितों का कुछ भला होने वाला नहीं है।
अभिनव जी वस्तु स्थिति यह है कि कॉरपोरेट साम्राज्यवाद के खुले बाजार के आखेटगाह में कोई विचारधारा या मुक्तिकामी संघर्ष विस्थापित हो रहे, मारे जनता के काम नही आता, यह विडम्बना है। इरोम कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन नहीं चला रही हैं। एकदम गांधीवादी तरीके से लोकतान्त्रिक व गांधीवादी तरीके से लड़ रही हैं। छत्तीसगढ़ में गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार और अग्निवेश जैसे तमाम लोग महज लोकतान्त्रिक व संवैधानिक हक हकूक की ही बात कर रहे हैं। क्योंकि संवैधानिक प्रावधान ही उन्हें फौरी राहत दे सकता है। नोआखाली के दंगा पीड़ित भारत विभाजन के शिकार 1947 के बाद बसाये गये लोगों को जब जबरन सीमा पार भेजा जाता है, वहाँ मुक्तिकामी संघर्ष काम नहीं आता। हम उनकी लड़ाई संवैधानिक रास्ते पर ही लड़ सकते हैं। यह हमारी बौद्धिक दशा-दिशा के बजाय हमारी असहाय स्थिति की ही अभिव्यक्ति है। इसी तरह जब हम अविभाजित बिहार में काम कर रहे थे, और बाद में कोलकाता में आये , तब भी मध्य बिहार में विचारधारा की रण हुँकार की वजह से निजी सेनाओं के नरसंहार में मारे जाने वाले निहत्थे लोगों के बारे में भी क्रान्तिकारी लोगों से हम बार-बार निवेदन करते रहे हैं, कि जनमुक्ति सेना जब आम जनता की रक्षा में असमर्थ हैं तो अपनी कार्रवाइयों से वह किस विचारधारा के तहत सर्वहारा को निहत्था मारे जाने के लिये छोड़ देते हैं। मध्य बिहार में भी जाति विमर्श के भूल-भूलैय्या में विचारधारा और लड़ाई गायब हो गयी। इसी तरह मध्य भारत में दुस्साहसिक वैचारिक अभियानों ने कॉरपोरेट और पूँजीपति घरानों का सबसे ज्यादा भला किया है। क्योंकि पाँचवी और छठी अनुसूचियाँ लागू नहीं है। वनाधिकार व पर्यावरण कानून का खुल्लमखुल्ला उलंघन हो रहा है। खनन अधिनियम को मर्जीमाफिक लागू किया जा रहा है। ज्यादातर आदिवासी गाँव राजस्व गाँव नहीं हैं। एक बार बेदखल हो जाने के बाद आदिवासी जल-जंगल-जमीन के नजदीक भी भटक नहीं सकते। पर सशस्त्र संघर्ष के हालात में आदिवासियों के लिये आत्मरक्षा हेतु पलायन के अलावा कोई रास्ता नहीं है। दंडकारण्य के आदिवासी इलाकों में सैन्य शासन की वजह से वहाँ पुनर्वासित दलित शरणार्थी भी गृहबन्दी की ज़िन्दगी जी रहे हैं। क्रान्तिकारी लड़ालड़ाई के हम विरोधी नहीं हैं। पर कठोर वास्तविकता यही है कि घिरी हुयी जनता, जिसमें आदिवासी, पिछड़े, दलित और ओबीसी बहुसंख्य हैं, उनके बचाव के लिये अभी संविधान और लोकतान्त्रिक आन्दोलन को सिरे से खारिज करना आत्मघाती विमर्श है। इसका मतलब यह नहीं हुआ कि आपकी आपत्तियों को खारिज करते हुये मैं संविधान या अंबेडकर का महिमामण्डन कर रहा हूँ। आप मेरी मणिपुर डायरी पढ़ें न पढ़ें, पर पूर्वोत्तर की भुक्तभोगी जनता और वहाँ के अखबारों को देखें कि वे लोकतान्त्रिक, नागरिक और मानवाधिकारों के लिये किस हद तक मोहताज हैं। इरोम शरमिला की लड़ाई हमें यह प्रतीकात्मक तौर पर बता ही देती है।
भारत में असमानता और सामाजिक अन्याय, नस्ली भेदभाव और वंशवाद विचारधाराओं, राजनीति और आन्दोलन पर इतने भयानक तरीके से हावी हैं कि हम और हमारे जैसे अनेक लोग मानते हैं कि क्रान्तिकारी मुक्तिसंग्राम के लिये राष्ट्रव्यापी मोर्चाबन्दी से पहले अंबेडकर आन्दोलन के तहत लोकतान्त्रिक व धर्म निरपेक्ष ताकतों का गठजोड़ बनाया जाये। जिसे आप दिशाहीन बता सकते हैं, पर मोर्चाबन्दी के लिये यह बेहद जरूरी है। हमने भूमि सुधार और अस्पृश्यतामोचन के सिलसिले में मतुआ और चंडाल आन्दोलनों का उल्लेख किया है। हिन्दू राष्ट्रवाद का आधार बने संन्यासी विद्रोह के बारे में भी लिखा है। भारत विभाजन की पृष्ठभूमि भी रेखांकित की है। ये तमाम आन्दोलन और आदिवासियों के तमाम आन्दोलन वास्तव में किसान आन्दोलन ही थे और सामन्तवाद व साम्राज्यवाद के विरुद्ध मुक्तकामी जनविद्रोह के विस्फोट थे। उनका हमारे विचारकों और इतिहासकारों ने विश्लेषण नहीं किया। आपने अपने शुरुआती आलेख में लिखा है कि दलितों के हक-हकूक के लिये अंबेडकर अनुयायियों ने नहीं सबसे ज्यादा कुर्बानी कम्युनिस्टों ने दी है। यह सच है और इससे बड़ा सच यह है कि कुर्बानी देने वालों में वंचित बहिस्कृत समुदायों के लोग ही ज्यादा हैं, शासक जातियों के नगण्य।
मतुआ चंडाल आंदोलनों और आदिवासी विद्रोह के सामाजिक यथार्थ भारत में मुक्तिकामी संघर्ष का प्रस्थानबिन्दु बन सकता है, जिसके केन्द्र में जाति व नस्ली भेदभाव से निपटने की मुख्य चुनौती है। हम अपनी अभिज्ञता के मुताबिक आपको तर्क दे रहे हैं, क्योंकि हम यह मान ही चुके हैं कि हम ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं। हमारी जनता भी औपचारिक शिक्षा के बावजूद अपढ़ ही है। सूचना महाविस्फोट की वजह से सारे लोग एक दूसरे से कटे हुये हैं और किसी को कोई जानकारी नहीं होती। जिसका शिकार चंडीगढ़ विमर्श भी हुआ, क्योंकि रपटों से तो ही लगा कि आप लोगों का सारा जोर अंबेडकर को पूँजीवाद व साम्राज्यवाद समर्थक घोषित करने और उन्हें, उनकी विचारधारा और उनके संविधान को गैर प्रासंगिक साबित करने पर रहा है। जबकि आपके ताजा आलेख से अब ऐसा नहीं लग रहा है। तो हमें और देश की बहिष्कृत वंचित जनता ही नहीं, निन्यानबे फीसद जनता के लिये बौद्धिक कवायद से ज्यादा भोगा हुआ रोजमर्रे का यथार्थ ही ज्यादा समझ में आता है, विचारधारा और सिद्धान्त के हजम करने का हाजमा अभी बना ही नहीं।
हम यही चाहते है कि यह बहस द्विपाक्षिक न हो और जवाब भी सामूहिक संवाद और विमर्श से निकले। पर चूंकि आलेख में आपने हमें सम्बोधित किया है, इसलिये हम जवाब देने को मजबूर हुये। हम भी आपकी तरह विचारधारा को जड़ नहीं मानते। हम भी आपकी तरह मुक्तिकामी संघर्ष को अपना अन्तिम लक्ष्य मानते हैं। लेकिन मुक्तिकामी संघर्ष के लिये लोकतान्त्रिक, धर्मनिरपेक्ष, संवैधानिक, नागरिक व मानवाधिकारों को बहाल करना अनिवार्य मानते हैं, ताकि इस मुक्तिकामी संघर्ष में जनता की व्यापक भागेदारी सुनिश्चित हो। आपको हमारी धारणायें बचकानी और नादान लग सकती हैं। छात्र जीवन में हम भी कट्टर विचारधारा के अनुयायी थे। आज आपका जो अवस्थान है, वह अवस्थान हमारा भी सन 2001 तक था। हमने अपने पिता से कोई राजनीतिक बहस नहीं की, जबकि शरणार्थी समस्याओं से जुड़े उनके तमाम कागजी काम हम करते थे। आज जो मैं कह रहा हूँ, हमारे अपढ़ पिता वही कहा करते थे। यह कोई मौलिक बात नहीं है। वे कहते थे कि सिद्धान्तों और अवधारणाओं से क्रान्ति हो न हो, आम पीड़ित वंचित को राहत तो मिलती नहीं है। वे 1958 के ढिमरी ब्लॉक किसान विद्रोह के नेता थे और उनकी शिकायत थी किभारत में कम्युनिस्टों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे पुस्तकों और उद्धरणों से बाहर नहीं आते। सामाजिक यथार्थ और जमीनी हकीकत को सम्बोधित नहीं कर पाते। वरना आज भारत में जनमुक्ति आन्दोलन की दशा और दिशा कुछ और ही होती। जब हमें अपने पिता की मृत्यु के बाद देश भर से शरणार्थियों की समस्याओं के बारे में सक्रिय होने का दबाव पड़ा तो हमें क्रान्तिकारी जमात से कोई मदद नहीं मिली। पिता अंबेडकर के अनुयायी थे और कहते थे कि अंबेडकर को जाने बिना तुम हमारे लोगों के हितों की लड़ाई लड़ ही नहीं सकते। हमने पिता की कैंसर से मृत्यु के बाद ही अंबेडकर को समझने की कोशिश की, उस पिता के खातिर जो आखिरी साँस तक अपने लोगों के लड़ते रहे। वे सिद्धांत और विचारधारा की बुनियाद पर लड़ नहीं रहे थे। पर उनकी प्रतिबद्धता हमसे लाख गुणा ज्यादा थी।
दुनिया भर में कहीं भी बने बनाये सिद्धान्तों के मुताबिक क्रान्ति नहीं हुयी। लेनिन से लेकर माओ तक ने, वाशिंगटन से लेकर मार्टिन लुथर किंग तक, नेल्सन मंडेला और दूसरे तमाम लोग अपने देश काल परिस्थितियों को सम्बोधित करके ही मुक्तिकामी जनता को एकजुट कर पाये। हम इस कार्यभार के उत्तरदायित्व से इंकार नहीं कर सकते।
बहस अम्बेडकर और मार्क्स के बीच नहीं, वादियों के बीच है
दुनिया भर में अंबेडकर की प्रासंगिकता को लोग खारिज करके मुक्ति संग्राम की बात नहीं करते।
‘हस्तक्षेप’ पर षड्यन्त्र का आरोप लगाना वैसा है कि ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’
यह तेलतुंबड़े के खिलाफ हस्तक्षेप और तथाकथित मार्क्सवादियों का षडयंत्र है !
भारतीय बहुजन आन्दोलन के निर्विवाद नेता अंबेडकर ही हैं
भावनात्मक कार्ड खेलकर आप तर्क और विज्ञान को तिलांजलि नहीं दे सकते
कुत्सा प्रचार और प्रति-कुत्सा प्रचार की बजाय एक अच्छी बहस को मूल मुद्दों पर ही केंद्रित रखा जाय
Reply of Abhinav Sinha on Dr. Teltumbde
तथाकथित मार्क्सवादियों का रूढ़िवादी और ब्राह्मणवादी रवैया
हाँ, डॉ. अम्बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी
अम्बेडकरवादी उपचार से दलितों को न तो कुछ मिला है, और न ही मिले
अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं
हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!
- because of the hatred for the Brahmanism, Ambedkar failed to understand the conspiracy of colonialism
- All experiments of Dalit emancipation by Dr. Ambedkar ended in a ‘grand failure’
- Ambedkar’s politics does not move an inch beyond the policy of some reforms
- दलित मुक्ति को अंजाम तक पहुँचाने के लिए अम्बेडकर से आगे जाना होगा
- ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाये
- अंबेडकर के सारे प्रयोग एक ‘‘महान विफलता’’ में समाप्त हुये – तेलतुंबड़े
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