Open debate on Ambedkarite ideology and movement! Welcome!
विचारधारा के तहत आंदोलन पर व्यक्ति , वंश . क्षेत्रीय व समुदाय विशेष के वर्चस्व को खत्म करना इसके लिए बेहद जरुरी है। विचारधारा, आंदोलन और संगठन को संस्थागत व लोकतांत्रिक बनाये जाने की जरुरत है।
पलाश विश्वास
`हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!'शीर्षक आलेख मेरा आलेख छापते हुए हस्तक्षेप के संपादक अमलेंदु उपाध्याय ने खुली बहस आमंत्रित की है। इसका तहेदिल से स्वागत है।भारत में विचारधारा चाहे कोई भी हो, उसपर अमल होता नहीं है। चुनाव घोषणापत्रों में विचारधारा का हवाला देते हुए बड़ी बड़ी घोषणाएं होती हैं, पर उन घोषणाओं का कार्यान्वयन कभी नहीं होता।
विचारधारा के नाम पर राजनीतिक अराजनीतिक संगठन बन जाते हैं, उसेक नाम पर दुकानदारी चलती है।सत्तावर्ग अपनी सुविधा के मुताबिक विचारधारा का इस्तेमाल करता है।वामपंथी आंदोलनों में इस वर्चस्ववाद का सबसे विस्फोटक खुलासा होता रहा है। सत्ता और संसाधन एकत्र करने के लिए विचारधारा का बतौर साधन और माध्यम दुरुपयोग होता है।
इस बारे में हम लगातार लिखते रहे हैं। हमारे पाठकों को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है। हमने ज्ञानपीठ पुरस्कारविजेता साहित्यकार और अकार के संपादक गिरिराज किशोर के निर्देशानुसार इसी सिलसिले में अपने अध्ययन को विचारधारा की नियति शीर्षक पुस्तक में सिलसिलेवार लिखा भी है। इसकी पांडुलिपि करीब पांच छह सालों से गिरिराज जी के हवाले है। इसी तरह प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह के कहने पर मैंने रवींद्र का दलित विमर्श नामक एक पांडुलिपि तैयार की थी, जो उनके पास करीब दस साल से अप्रकाशित पड़ी हुई है।
भारतीय राजनीति पर हिंदुत्व और कारपोरेट राज का वर्चस्व इतना प्रबल है कि विचारधारा को राजनीति से जोड़कर हम शायद ही कोई विमर्श शुरु कर सकें। इस सिलसिले में इतना ही कहना काफी होगा कि अंबेडकरवादी आंदोलन का अंबेडकरवादी विचारधारा से जो विचलन हुआ है, उसका मूल कारण विचारधारा, संगठन और आंदोलन पर व्यक्ति का वर्चस्व है। यह बाकी विचारधाराओं के मामले में भी सच है।
कांग्रेस जिस गांधी और गांधीवादी विचारधारा के हवाले से राजकाज चलाता है, उसमें वंशवादी कारपोरेट वर्चस्व के काऱम और जो कुछ है, गांधीवाद नहीं है। इसीतरह वामपंथी आंदोलनों में मार्क्सवाद या माओवाद की जगह वर्चस्ववाद ही स्थानापन्न है।संघ परिवार की हिंदुत्व विचारधारा का भी व्यवहार में कारपोरेटीकरण हुआ है। कारपोरेट संस्कृति की राजनीति के लिए किसी एक व्यक्ति और पार्टी को दोषी ठहराना जायज तो है नहीं, उस विचारधारा की विवेचना भी इसी आधार पर नहीं की जा सकती।
बहरहाल यह हमारा विषय नहीं है। सत्ता में भागेदारी अंबेडकर विचारधारा में एक क्षेपक मात्र है, इसका मुख्य लक्ष्य कतई नहीं है। अंबेडकर एकमात्र भारतीय व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने अपने भोगे हुए अनुभव के तहत इतिहासबोध और अर्थशास्त्रीय अकादमिक दृष्टिकोण से भारतीयसामाजिक यथार्थ को संबोधित किया है।सहमति के इस प्रस्थानबिंदू के बिना इस संदर्भ में कोई रचनात्मक विमर्श हो ही नहीं सकता और न निनानब्वे फीसद जनता को कारपोरेट साम्राज्यवाद से मुक्त करने का कोई रास्ता तलाशा जा सकता है।
गांधी और लोहिया ने भी अपने तरीके से भारतीय यथार्थ को संबोधित करने की कोशिश की है, पर उनके ही चेलों ने सत्ता के दलदल में इन विचारधाराओं को विसर्जित कर दिया।
यही वक्तव्य अंबेडकरवादी विचारधारा के संदर्भ में भी प्रासंगिक है। उन्होंने जो शोषणमुक्त समता भ्रातृत्व और लोकतांत्रिक समाज, जिसमें सबके लिए समान अवसर हो, की परिकल्पना की, उससे वामपंथी वर्गविहीन शोषणमुक्त समाज की स्थापना में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। अंतर जो है, वह भारतीय यथार्थ के विश्लेषण को लेकर है।
भारतीय वामपंथी जाति व्यवस्था के यथार्थ को सिरे से खारिज करते रहे हैं, जबकि वामपंथी नेतृत्व पर शासक जातियों का ही वर्चस्व रहा है।यहां तक कि वामपंथी आंदोलन पर क्षेत्रीय वर्चस्व का इतना बोलबाला रहा कि गायपट्टी से वामपंथी नेतृत्व उभारकर भारतीय संदर्भ में वामपंथ को प्रासंगिक बनाये रखे जाने की फौरी जरुरत भी नजरअंदाज होती रही है, जिस वजह से आज भारत में वामपंथी हाशिये पर हैं। अब वामपंथ में जाति व क्षेत्रीय वर्चस्व को जस का तस जारी रखते हुए जाति विमर्श के बहाने अंबेडकर विचारधारा को ही खारिज करने का जो उद्यम है, उससे भारतीय वामपंथ के और ज्यादा अप्रासंगिक हो जाने का खतरा है।
शुरुआत में ही यहस्पष्ट करना जरुरी है कि आरएसएस और बामसेफ के प्रस्थानबिंदू और लक्ष्य कभी एक नही रहे। इस पर शायद बहस की जरुरत नहीं है। आरएसएस हिदूराष्ट्र के प्रस्थानबिंदू से चलकर कारपोरेट हिंदू राष्ट्र की लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। वहीं जातिविहीन समता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के आधार पर सामाजिक बदलाव के लिए चला बामसेफ आंदोलन व्यक्ति वर्चस्व के कारण विचलन का शिकार जरुर है, पर उसका लक्ष्य अस्पृश्यता और बहिस्कार आधारित समाज की स्थापना कभी नहीं है। हम नेतृत्व के आधार पर विभाजित भारतीय जनता को एकजुट करने में कभी कामयाब नहीं हो सकते। सामाजिक प्रतिबद्धता के आधार पर जीवन का सर्वस्व दांव पर लगा देने वाले कार्यकर्ताओं को हम अपने विमर्श के केंद्र में रखें तो वे चाहे कहीं भी, किसी के नेतृत्व में भी काम कर रहे हों, उनको एकताबद्ध करके ही हम नस्ली व वंशवादी वर्चस्व, क्रयशक्ति के वर्चस्व के विरुद्ध निनानब्वे फीसद की लड़ाई लड़ सकते हैं।
प्रिय मित्र और सोशल मीडिया में हमारे सेनापति अमलेंदु ने इस बहस को जारी रखने के लिए कुछ प्रश्न किये हैं, जो नीचे उल्लेखित हैं।इसीतरह हमारे मराठी पत्रकार बंधु मधु कांबले ने भी कुछ प्रश्न मराठी `दैनिक लोकसत्ता' में बामसेफ एकीकरण सम्मेलन के परसंग में प्रकाशित अपनी रपटों में उटाये है, जिनपर मराठी में बहस जारी है। जाति विमर्श सम्मेलन में भी कुछ प्रश्न उठाये गये हैं, जिनका विवेचन आवश्यक है।
य़ह गलत है कि अंबेडकर पूंजीवाद समर्थक थे या उन्होंने ब्राह्मणविद्वेष के कारण साम्राज्यवादी खतरों को नजरअंदाज किया।
मनमाड रेलवे मैंस कांफ्रेंस में उन्होंने भारतीय जनता के दो प्रमुख शत्रु चिन्हित किये थे, एक ब्राह्मणवाद और दूसरा पूंजीवाद । उन्होंने मजदूर आंदोलन की प्राथमिकताएं इसी आधार पर तय की थी।
अनुसूचित फेडरेशन बनाने से पहले उन्होंने श्रमजीवियों की पार्टी बनायी थी और ब्रिटिश सरकार के श्रममंत्री बतौर उन्होंने ही भारतीय श्रम कानून की बुनियाद रखी थी।
गोल्ड स्टैंडर्ड तो उन्होंने साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था के प्रतिकार बतौर सुझाया था। बाबासाहेब के अर्थशास्त्र पर एडमिरल भागवत ने सिलसिलेवार लिखा है, पाठक उनका लिखा पढ़ लें तो तस्वीर साफ है जायेगी।
न सिर्फ विचारक बल्कि ब्रिटिश सरकार के मंत्री और स्वतंत्र भारत में कानून मंत्री, भारतीय संविधान के निर्माता बतौर उन्होंने संपत्ति और संसाधनों पर जनता के हकहकूक सुनिश्चित करने के लिए संवैधानिक रक्षाकवच की व्यवस्था की, नई आर्थिक नीतियों और कारपोरेट नीति निर्धारण, कानून संशोधन से जिनके उल्लंघन को मुक्त बाजार का मुख्य आधार बनाया गया है। इसी के तहत आदिवासियों के लिए पांचवी और छठीं अनुसूचियों के तहत उन्होंने जो संवैधानिक प्रावधान किये, वे कारपोरेट राज के प्रतिरोध के लिए अचूक हथियार हैं। ये संवैधानिक प्रावधान सचमुच लागू होते तो आज जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखली का अभियान चल नहीं रहा होता और न आदिवासी अंचलों और देश के दूसरे भाग में माओवादी आंदोलन की चुनौती होती।
शास्त्रीय मार्क्सवाद पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध है, लेकिन वहां पूंजीवादी विकास के विरोध के जरिये सामंती उत्पादन व्यवस्था को पोषित करने का कोई आयोजन नहीं है। जाहिर है कि अंबेडकर ने भी पूंजीवादी विकास का विरोध नहीं किया तो सामंती सामाजिक व श्रम संबंधों के प्रतिकार बतौर, प्रतिरोध बतौर, पूंजी या पूंजीवाद के समर्थन में नहीं। वरना एकाधिकार पूंजीवाद या कारपोरेट साम्राज्यवाद के विरुद्ध संवैधानिक रक्षाकवच की व्यवस्था उन्होंने नहीं की होती।
अंबेडकर विचारधारा के साथ साथ उनके प्रशासकीय कामकाज और संविधान रचना में उनकी भूमिका की समग्रता से विचार किया जाये, तो हिंदू राष्ट्र के एजंडे और कारपोरेट साम्राज्यवाद के प्रतिरोध में लोक गणराज्य भारतीय लोकतंत्र और बहुलतावादी संस्कृति की धर्मनिरपेक्षता के तहत भारतीय संविधान की रक्षा करना हमारे संघर्ष का प्रस्थानबिंदू होना चाहिए. जिसकी हत्या हिंदुत्ववादी जायनवादी धर्मराष्ट्रवाद और मुक्त बाजार के कारपोरेट सम्राज्यवाद का प्रधान एजंडा है।
समग्र अंबेडकर विचारधारा, जाति अस्मिता नहीं, जाति उन्मूलन के उनके जीवन संघर्ष, महज सत्ता में भागेदारी और सत्ता दखल नहीं, शोषणमुक्त समता और सामाजिक न्याय आधारित लोक कल्याणकारी लोक गणराज्य के लक्ष्य के मद्देनजर न सिर्फ बहिस्कार के शिकार ओबीसी,अनुसूचित जाति और जनजाति, धर्मांतरित अल्पसंख्यक समुदाय बल्कि शरणार्थी और गंदी बस्तियों में रहनेवाले लोग, तमाम घुमंतू जातियों के लोग और कुल मिलाकर निनानब्वे फीसद भारतीय जनता जो एक फीसद की वंशवादी नस्ली वर्चस्व के लिए नियतिबद्ध हैं,उनके लिए बाबासाहेब के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है।
इसलिए अंबेडकरवादी हो या नहीं, बहिस्कृत समुदायों से हो या नहीं, अगर आप लोकतांत्रिक व्यवस्था और धर्मनिरपेक्षता में आस्था रखते हैं, तो अंबेडकर आपके लिए हर मायने में प्रासंगिक हैं और उन्हीं के रास्ते हम सामाजिक व उत्पादक शक्तियों का सं.युक्त मोर्चा बनाकर हिंदुत्व व कारपोरेट साम्राज्यवाद दोनों का प्रतिरोध कर सकते हैं।
विचारधारा के तहत आंदोलन पर व्यक्ति , वंश . क्षेत्रीय व समुदाय विशेष के वर्चस्व को खत्म करना इसके लिए बेहद जरुरी है। विचारधारा, आंदोलन और संगठन को संस्थागत व लोकतांत्रिक बनाये जाने की जरुरत है। बामसेफ एकीकरण अभियान इसी दिशा में सार्थक पहल है जो सिर्फ अंबेडकरवादियों को ही नहीं, बल्कि कारपोरेट साम्राज्यवाद व हिंदुत्व के एजंडे के प्रतिरोध के लिए समस्त धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक ताकतों के संयुक्त मोर्चा निर्माण का प्रस्थानबिंदु है। पर हमारे सोशल मीडिया ने इस सकारात्मक पहल को अंबेडकर के प्रति अपने अपने पूर्वग्रह के कारण नजरअंदाज किया, जो आत्मघाती है।
इसके विपरीत इसकी काट के लिए कारपोरेट माडिया ने अपने कतरीके से भ्रामक प्रचार अभियान प्रारंभ से ही यथारीति चालू कर दिया है।
अमलेंदु के प्रश्न इस प्रकार हैः
‘जाति प्रश्न और मार्क्सवाद’ विषय पर चंडीगढ़ के भकना भवन में सम्पन्न हुये चतुर्थ अरविंद स्मृति संगोष्ठी की हस्तक्षेप पर प्रकाशित रिपोर्ट्स के प्रत्युत्तर में हमारे सम्मानित लेखक पलाश विश्वास जी का यह आलेख प्राप्त हुआ है। उनके इस आरोप पर कि हम एक पक्ष की ही रिपोर्ट्स दे रहे हैं, (हालाँकि जिस संगोष्ठी की रिपोर्ट्स दी गयीं उनमें प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े, प्रोफेसर तुलसीराम और प्रोफेसर लाल्टू व नेपाल दलित मुक्ति मोर्चा के तिलक परिहार जैसे बड़े दलित चिंतक शामिल थे) हमने उनसे (पलाश जी) अनुरोध किया था कि उक्त संगोष्ठी में जो कुछ कहा गया है उस पर अपना पक्ष रखें और यह बतायें कि डॉ. अंबेडकर का मुक्ति का रास्ता आखिर था क्या और उनके अनुयायियों ने उसकी दिशा में क्या उल्लेखनीय कार्य किया।
मान लिया कि डॉ. अंबेडकर को खारिज करने का षडयंत्र चल रहा है तो ऐसे में क्या अंबेडकरवादियों का दायित्व नहीं बनता है कि वह ब्राह्मणवादी तरीके से उनकी पूजा के टोने-टोटके से बाहर निकलकर लोगों के सामने तथ्य रखें कि डॉ. अंबेडकर का मुक्ति का रास्ता यह था। लेकिन किसी भी अंबेडकरवादी ने सिर्फ उनको पूजने और ब्राह्मणवाद को कोसने की परम्परा के निर्वाह के अलावा कभी यह नहीं बताया कि डॉ. अंबेडकर का नुस्खा आखिर है क्या।
हम यह भी जानना चाहते हैं कि आखिर बामसेफ और आरएसएस में लोकेशन के अलावा लक्ष्य में मूलभूत अंतर क्या है।
पलाश जी भी “साम्राज्यवादी हिन्दुत्व का यह वामपंथी चेहरा बेनकाब कर देने का वक्त है” तो रेखांकित करते हैं लेकिन डॉ. अंबेडकर की सियासी विरासत “बहुजन समाज पार्टी” की बहन मायावती और आरपीआई के अठावले के “नीले कॉरपोरेटी हिन्दुत्व” पर मौन साध लेते हैं।
हम चाहते हैं पलाश जी ही इस “नीले कॉरपोरेटी हिन्दुत्व” पर भी थोड़ा प्रकाश डालें। लगे हाथ एफडीआई पर डॉ. अंबेडकर के चेलों पर भी प्रकाश डालें। “हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है” इस संकट में अंबेडकरवादियों की क्या भूमिका है, इस पर भी प्रकाश डालें। मायावती और मोदी में क्या एकरूपता है, उम्मीद है अगली कड़ी में पलाश जी इस पर भी प्रकाश डालेंगे।
बहरहाल इस विषय पर बहस का स्वागत है। आप भी कुछ कहना चाहें तो हमें
पर मेल कर सकते हैं। पलाश जी भी आगे जो लिखेंगे उसे आप हस्तक्षेप पर पढ़ सकेंगे।
-संपादक हस्तक्षेप
इन सवालों का जवाब अकेले मैं नही दे सकता । मैं एक सामान्य नागरिक हूं और पढ़ता लिखता हूं। बेहतर हो कि इन प्रश्नों का जवाब हम सामूहिक रुप से और ईमानदारी से सोचें क्योकि ये प्रश्न भारतीय लोक गणराज्य के अस्तित्व के लिए अतिशय महत्व पूर्ण हैं।इस सिलसिले में इतिहासकार राम चंद्ग गुहा का `आउटलुक' व अन्यत्र लिखा लेख भी पढ़ लें तो बेहतर। अमलेंदु ने जिन लोगों के नाम लिखे हैं , वे सभी घोषित प्रतिष्ठित विद्वतजन हैं, उनकी राय सिर माथे। पर हमारे जैसे सामान्य नागरिक का भी सुना जाये तो बेहतर।
हमारा तो निवेदन है कि प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट खसोट पर अरुंधति राय और अन्य लोगों, जैसे राम पुनियानी और असगर अली इंजीनियर, रशीदा बी, रोहित प्रजापति जैसों का लिखा भी पढ़ लें तो हमें कोई उचित मार्ग मिलेगा। हम कोई राजनेता नहीं हैं, पर भारतीय जनगण के हकहकूक की लड़ाई में शामिल होने की वजह से लोकतांत्रिक विमर्श के जरिये ही आगे का रास्ता बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं।
भीमराव आम्बेडकर के चिन्तन और दृष्टि को समझने के लिये कुछ बिन्दु ध्यान में रखना जरुरी है । सबसे पहले तो यह कि वे अपने चिन्तन में कहीं भी दुराग्रही नहीं हैं । उनके चिन्तन में जड़ता नहीं है । वे निरन्तर अपने अनुभव और ज्ञान से सीखते रहे। उनका जीवन दुख, अकेलेपन और अपमान से भरा हुआ था, परंतु उन्होंने चिंतन से प्रतिरोध किया। बाह्य रूप से कठोर, संतप्त, क्रोधी दिखाई देने वाले व्यक्ति का अंतर्मन दया, सहानुभूति, न्यायप्रियता का सागर था।उन्होंने हमेशा अकादमिक पद्धति का अनुसरण किया। वे भा।ण नहीं देते थे। सुचिंतित लिखा हुआ प्रतिवेदन का पाठ करते थे। जाति उन्मूलन इसीतरह का एक पाठ है। वे ब्राह्मणवाद के विरुद्ध थे , लेकिन उनका ब्राह्णणों के खिलाफ विद्वेष एक अपप्रचार है। हमारे लिए विडंबना यह है कि मह विदेशी विचारधाराओं का तो सिलसिलेवार अधिययन करते हैं , पर गांधी, अंबेडकर या लोहियो को पढ़े बिना उनके आलोचक बन जाते हैं। दुर्भाग्य से लंबे अरसे तक भारतीय विचारधाराएं वामपंथी चिंतन के लिए निषिद्ध रही है, जसके परिणामस्वरुप सर्वमान्य विद्वतजन, जिनमें घोषित दलित चिंतक भी हैं, अंबेडकर को गैरप्रासंगिक घोषित करने लगे हैं।
अंबेटकर ने भाषा का अपप्रयोग किया हो कभी. मुझे ऐसा कोई वाकया मालूम नहीं है। आपको मालूम हो तो बतायें, अंबेडकरवादियों के लिए भाषा का संयम अनिवार्य है। वर्चस्ववादियों और बहिस्कारवादियों की तरह घृणा अभियान से अंबेडकर के हर अनुयायी को बचना होगा। तभी हम भारती य समाज को जोड़ सकेंगे, जिसे वर्चस्ववाद ले खंड खंड में बांटकर अपना राज कायम रखा है।
आनंद तेलतुम्बडे का मत है कि निजी तौर मुझे नहीं लगता कि हिंदुस्तान में मार्क्स या आम्बेडकर किसी एक को छोड़कर या कुछ लोगों की `मार्क्स बनाम आम्बेडकर` जैसी ज़िद पर चलकर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी जा सकती है। वैसे भी सामाजिक न्याय की लड़ाई एक खुला हुआ क्षेत्र है जिसमें बहुत सारे छोड़ दिए गए सवालों को शामिल करना जरूरी है। मसलन, यदि औरतों के सवाल की दोनों ही धाराओं (मार्क्स और आम्बेडकर पर दावा जताने वालों) ने काफी हद तक अनदेखी की है तो इस गलती के लिए मार्क्स या आम्बेडकर को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। आम्बेडकर और मार्क्स पर दावा जताने वाली धाराओं के समझदार लोग प्रायः इस गैप को भरने की जरूरतों पर बल भी देते हैं लेकिन बहुत सारी वजहों से मामला या तो आरोप-प्रत्यारोप में या गलती मानने-मनवाने तक सीमित रह जाता है। हमारे प्रिय फिल्मकार आनंद पटवर्धन ने तो एक विचारोत्तेजक फिल्म जयभीम कामरेड तक बना दी।
हमारा तो मानना है कि भारतीय यथार्थ का वस्तुवादी विश्लेशण करने कीस्थिति में किसी भी वामपंथी के अंबेडकरवादी होने या किसी भी अंबेडकरवादी के वामपंथी बनने में कोई दिक्कत नहीं है, जो इसवक्त एक दूसरे के शत्रु बनकर हिंदू राष्ट्र का रकारपोरेट राज के तिलिस्म में फंसे हुए हैं।
आज बस, यहीं तक।
आगे बहस के लिए आप कृपया संबंधित सामग्री देख लें। हमें भी अंबेडकर को नये सिरे से पढ़ने की जरुरत है।
अंबेडकर की एक बार फिर हत्या की तैयारी
Monday, 18 March 2013 10:06 | Written by Palash Biswas
आदिवासी को गुस्सा क्यों आता है? (1)
Sunday, 17 March 2013 08:05 | Written by Palash Biswas
आदिवासी को गुस्सा क्यों आता है? (2)
Sunday, 17 March 2013 08:34 | Written by Palash Biswas
आदिवासी को गुस्सा क्यों आता है? (3)
Sunday, 17 March 2013 08:40 | Written by Palash Biswas
आदिवासी को गुस्सा क्यों आता है ?
SUNDAY, 17 MARCH 2013 03:12
हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!
http://hastakshep.com/?p=30615
पलाश विश्वास
सबसे बुरा दौर तो अब शुरु हुआ है! इसके विपरीत वैश्विक रेटिंग एजेंसी फिच की भारतीय इकाई इंडिया रेटिंग्स का कहना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बुरा दौर खत्म हो चुका है, लेकिन आने वाला समय अब भी अनिश्चितताओं से भरा है। किसी अनहोनी से बचने के लिए गुणवत्तापूर्ण राजकोषीय उपाय किये जाने की आवश्यकता है। भारत सरकार की अपनी कोई वित्तीय नीति है नहीं। कॉरपोरेट नीति निर्धारण के लिए रेटिंग एजंसियों की रपट का बतौर छतरी इस्तेमाल करने का रिवाज बन गया है। वित्तीय घाटा को आर्थिक संकट का पर्याय बताया जाता है और विकास दौर को समृद्धि का। पर इन आंकड़ों से निनाब्वे फीसदी जनता का कोई लेना देना नहीं है।
दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों से यह आर्थिक संकट दूर होने से तो रहा। आधार योजना को भी अब किनारे करके अब एक अरब डॉलर के निवेश से नई पहचान योजना आरआईसी कारपोरेट हितों के मुताबिक कॉरपोरेट द्वारा संचालित शुरू की जाने वाली है। हिन्दुत्व के एजण्डे के प्रतिरोध के लिये जब अंबेडकर विचारधारा के तहत बहिष्कृत बहुसंख्यक जनता को गोलबन्द करना सम्भव है क्योंकि इसके जरिये उत्पादक व सामाजिक शक्तियों के धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक मोर्चा बनाया जा सकता है। अंबेडकर के प्रयास से जो गोल्ड स्टैण्डर्ड चालू हुआ उसे खत्म करके भारतीय शासक वर्ग ने जो डॉलर की नियति के साथ भारत की अर्थ व्यवस्था को जोड़ा है, वही आर्थिक संकट की जड़ है।
वैश्विक मुक्त बाजार के संकट को भारतीय जनता का संकट बताते हुए समृद्धि के रिसाव को भारतीय समावेशी विकास बनाने का सबसे मुखर विरोध करने वाले वामपंथी अब अंबेडकर और उनकी विचारधारा को खारिज करने में लगे हैं। जनसंहार की नीतियों का विरोध करने का नारा लगाने वाले इन लोगों ने उदारीकरण के दो दशक जनता को गुमराह करके सत्ता वर्ग के हितों के मुताबिक संविधान की हत्या में पूरा सहयोग करके प्रतिरोध की हर सम्भावना को खराब करने में बेकार बिता दिये। अब जब हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है तब ये अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करने की तैयारी में है। इससे बड़ा संकट क्या हो सकता है?
पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।
उनकी दलील है कि ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाये। दलित उत्पीडऩ को लेकर अंबेडकर की पीड़ा सच्ची थी लेकिन केवल पीड़ा से कोई मुक्ति का दर्शन नहीं बन सकता। तो साम्राज्यवादी खतरे को आपने कैसे पहचाना, कोई उनसे पूछे। डॉ. अंबेडकर ने ही प्रॉब्लम ऑफ रूपी के जरिये सबसे पहले साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था की चीरफाड़ की। भारतीय वामपंथी तो अमेरिका और इजराइल के नेतृत्व में पारमाणविक जायनवादी सैन्य गठबंधन बनने तक सत्ता वर्ग को पूरा समर्थन देते रहे, भारत अमेरिका परमाणु संधि का कार्यान्वयन सुनिश्चित करने तक। इन्हें अंबेडकर की आलोचना करने का क्या हक है?
यह जाति विमर्श तब शुरु हुआ जबकि अंबेडकरवादी आन्दोलन की प्रक्रिया शुरु हो चुकी है। इससे इसकी कार्ययोजना और एजेण्डा दोनों साफ हैं। साम्राज्यवादी हिन्दुत्व का यह वामपंथी चेहरा बेनकाब कर देने का वक्त है।
देश की संपत्ति और प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के हक हकूक के लिए बाबासाहेब ने जो संवैधानिक रक्षा कवच तैयार किये, उसे ध्वस्त करने में वामपंथी भी तो लगातार सत्ता वर्ग का साथ देते रहे। मरीचझांपी नरसंहार प्रकरण से साफ जाहिर है कि उनका जाति विमर्श दरअसल ब्राह्मणवादी वर्चस्व बनाये रखने और मनुस्मृति कॉरपोरेट व्यवस्था बनाये रखने के लिये है।
कामरेड ज्योति बसु ने अपने लंबे राजकाज के दौरान बाकी देश में मंडल कमीशन लागू करने का शोर मचाने के बावजूद बंगाल में आधी आबादी ओबीसी होने के बावजूद यहाँ ओबीसी के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं किया। पैंतीस साल तक बंगाल के वाम शासन में ब्राह्मणमोर्चा का ही राज रहा। यहीं नहीं ब्राह्मणवादी बंगाली वर्चस्व के जरिये भारतीय वामपंथी आंदोलन को तहस नहस कर दिया गया।
आदिवासियों के हक-हकूक के बारे में उनकी ही नीतियों की वजह से नक्सलबाड़ी जनविद्रोह हुआ। वे ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने को तैयार सिर्फ इसलिए नहीं हुये कि केन्द्र में उनकी सरकार होने पर भूमि सुधार लागू करना उनकी जिम्मेवारी होती और भूमि सुधार लागू नहीं करना चाहते।
य़हीं नहीं, बंगाल और केरल के ब्राहण वामपंथी नेताओं ने पार्टी नेतृत्व में सवर्ण असवर्ण दूसरी जातियों को कोई प्रतिनिधित्व देने से परहेज किया। स्त्रियों को अधिकार नहीं दिये। वृंदा कारत और सुभाषिणी अली अपवाद हैं।
लेकिन केरल की गौरी अम्मा के साथ जो सलूक किया, उसका क्या?
आदिवासियों के हक हकूक के लिए भारतीय वामपंथियों ने संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूचियों को लागू करने के लिये कौन सा राष्ट्र व्यापी आन्दोलन किया अगर करते तो आज देश को माओवाद की जरूरत ही नहीं होती। यह जाति विमर्श अंबेडकरवादी आन्दोलन के विरुद्ध है और कुछ भी नहीं। जबकि साम्राज्यावादी हिन्दुत्ववादी जायनवादी मुक्त बाजार व्यवव्था के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक अंबेडकरवादी आंदोलन के सिवाय कोई दूसरा विकल्प है ही नहीं।
अभी तो हम इस जाति विमर्श में क्या हुआ, इसी की जानकारी देने के लिये इतना भर लिख रहे हैं और पहले उनकी दलीलों को रख रहे हैं। बाद में सिलसिलेवार उनके हर तर्क का यथोचित जवाब दिया जायेगा।
यह जाति विमर्श अनुष्ठान जयपुर साहित्य सम्मलन के आरक्षणविरोधी मंच बन जाने जैसा वाकया है। जहाँ अवधारणा पेश करने की यह बानगी देखिये -
आज सामन्ती शक्तियाँ नहीं बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था जाति प्रथा को जिन्दा रखने के लिये जिम्मेदार है और यह मेहनतकश जनता को बाँटने का एक शक्तिशाली राजनीतिक उपकरण बन चुकी है। इसलिये यह सोचना गलत है कि पूँजीवाद और औद्योगिक विकास के साथ जाति व्यवस्था स्वयं समाप्त हो जाएगी।
चौथे दिन आज यहाँ पेपर प्रस्तुत करते हुए ‘आह्वान’ पत्रिका के सम्पादक अभिनव सिन्हा ने यह बात कही। ‘जाति व्यवस्था सम्बंधी इतिहास लेखन’ पर केंद्रित अपने आलेख में उन्होंने जातिप्रथा के उद्भव और विकास के बारे में सभी प्रमुख इतिहासकारों के विचारों की विवेचना करते हुए बताया कि जाति कभी भी एक जड़ व्यवस्था नहीं रही है, बल्कि उत्पादन सम्बंधों में बदलाव के साथ इसके स्वरूप और विशेषताओं में भी बदलाव आता रहा है। उन्होंने कहा कि प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था का उदय अभिन्न रूप से समाज में वर्गों, राज्य और पितृसत्ता के उदय से जुड़ा हुआ है। अपने उद्भव से लेकर आज तक जाति विचारधारा शासक वर्गों के हाथ में एक मजबूत औजार रही है। यह गरीब मेहनतकश आबादी को पराधीन रखती है और उन्हें अलग-अलग जातियों में बाँट देती है। पूँजीवाद ने जातिगत श्रम विभाजन और खान-पान की वर्जनाओं को तोड़ दिया है लेकिन सजातीय विवाह की प्रथा को कायम रखा है,क्योंकि पूँजीवाद से इसका कोई बैर नहीं है।
कहा जा रहा है कि जाति व्यवस्था तथा छुआछूत के विरुद्ध अम्बेडकर के अथक संघर्ष से दलितों में नयी जागृति आयी लेकिन वह दलित मुक्ति की कोई समग्र परियोजना नहीं दे सके और अम्बेडकर के दार्शनिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक चिन्तन में से दलित मुक्ति की कोई राह निकलती नज़र नहीं आती। इसलिए भारत में दलित मुक्ति तथा जाति व्यवस्था के नाश के संघर्ष को अंजाम तक पहुँचाने के लिए अम्बेडकर से बढ़कर रास्ता तलाशना होगा।
‘जातिप्रश्न और मार्क्सवाद’ विषय पर भकना भवन में जारी अरविंद स्मृति संगोष्ठी के पाँचवें और अन्तिम दिन आज यहाँ ‘अम्बेडकरवाद और दलित मुक्ति’ विषय पर अपने पेपर में पंजाबी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के संपादक सुखविन्दर ने कहा कि जाति प्रश्न के सन्दर्भ में अम्बेडकर तथा उनके नेतृत्व वाले समाज-सुधार आन्दोलन की ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील भूमिका को स्वीकार करते हुये भी, उनकी सीमाओं से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता।
उन्होंने कहा कि आज मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद को मिलाने की बातें हो रही हैं लेकिन वास्तव में इन दोनों विचारधाराओं में बुनियादी अन्तर है। मार्क्सवाद वर्ग संघर्ष के ज़रिये समाज में से वर्ग विभेदों को मिटाने, मनुष्य के हाथों मनुष्य के शोषण का अन्त करने तथा समाजवाद को वर्गविहीन समाज ले जाने का रास्ता पेश करता है जबकि अम्बेडकर की राजनीति शोषण-उत्पीड़न की बुनियाद पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था का अंग बनकर इसी व्यवस्था में कुछ सुधारों से आगे नहीं जाती है। सुखविन्दर ने अपने विस्तृत आलेख में अम्बेडकर के दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र और इतिहास सम्बंधी उनके विचारों का विश्लेषण प्रस्तुत करते हुये बताया कि दलितों में चेतना जगाने के उनके योगदान को स्वीकार क
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