IS U P ELECTION COMMISSION Not Consititutional
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IS U P ELECTION COMMISSION not consititutional

कानून , अदालतें, नियम सब अपनी जगह हैं , मगर ताकतवर और सक्षम लोग अपने हितों को साधने के लिए किस तरह से इनका दुरूपयोग करते हैं , इसके उदाहरण वक्त- वक्त प़र सामने आते रहते हैं . सबसे ताज़ा उदाहरण उ.प्र. का सामने आया है . स्थानीय निकाय चुनाव कराने   का .

हालाँकि समय से चुनाव करने के लिए राज्य चुनाव आयोग के अलावा इलाहबाद हाई कोर्ट , द्वारा भी राज्य सरकार को स्थानीय निकाय चुनाव करने का आदेश दिया गए हैं परन्तु राज्य सरकार किसी न किसी तरह समय गुजारने की कोशिश में लगी हुई है ताकि २०१२ के विधान सभा चुनाव से पहले स्थानीय निकाय चुनाव करने से बचा जा सके क्यूंकि राज्य के सत्तारूढ़ दल इन चुनावों के पहले संपन्न होने को अपने लिए खतरा मानता है . इलाहबाद हाई कोर्ट द्वारा दो-दो बार स्पष्ट आदेश देने के बाद भी राज्य सरकार द्वारा स्थानीय निकाय चुनाव के अधिसूचना जारी न करना और अपील दर अपील दाखिल करना साफ़ बताता है क़ि राज्य सरकार क़ानूनी प्रक्रियाओं का सहारा ले कर , अपनी ताकत भर स्थानीय निकाय चुनाव प्रक्रिया को टालने की हर मुमकिन कोशिश अंतिम क्षणों तक जारी रखने प़र तुली हुई है . जो काम युद्ध स्तर प़र शुरू के मात्र १५-२० दिन में पूरा किया जा सकता है उसके लिए प्रक्रियागत सहारा ले कर ४५ दिन की मोहलत लेने का प्रयास किया जा रहा है जब क़ि कानून के जानकार न्यायमूर्तियों ने काफी सोच समझ कर लोकतंत्र के रक्षा के लिए स्थानीय निकाय चुनाव के अधिसूचना जारी करने के आदेश दिये थे .

विभिन्न प्रक्रियाओं का सहारा ले कर राज्य द्वारा न्यायालय के आदेशों की पालना न करना ( अवहेलना ) किस बात का द्योतक है , इस बारे में संविधान के जानकारों तथा विधिवेत्ताओं को विचार करना चाहिए कि क्या कंहीं हमारी व्यवस्था में कमी रह गयी है कि देश के अदालतों को भी अपने आदेशों के पालन करवाने में इस कमी के कारण दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है और क्या इससे न्यायपालिका को एक चुनौती के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए .

अपने स्वार्थ साधन के लिए कोई राजनैतिक दल किस हद तक जा सकता है , उ. प्र. में स्थानीय निकाय चुनाव को टालने के लिए न्यायालय के आदेशों को क़ानूनी प्रक्रिया में उलझाते जाने का बेहतर उदाहरण और शायद पहले कभी नहीं देखा गया .

सबसे बड़ी विडंबना तो यह है क़ि स्वतंत्र और संवैधानिक निकाय का दर्ज़ा रखने वाला राज्य चुनाव आयोग भी इस मामले में आशय और पंगु है क्यूंकि जब तक राज्य सरकार अधिसूचना न ज़ारी कर दे , तब तक "राज्य चुनाव आयोग " कुछ नहीं कर सकता .

यानि "राज्य चुनाव आयोग " सिर्फ स्वतंत्र और संवैधानिक निकाय का तमगा लगाये राज्य सरकार के कृपा का मोहताज़ है . शायद संविधान निर्माताओं ने इस स्थिति की कल्पना ही नहीं की होगी भारतीय लोकतंत्र में कभी ऐसे स्थिति भी आ सकती है ? "उ. प्र.राज्य चुनाव आयोग " राज्य सरकार की कृपा का मोहताज़ है ?

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